घनानंद जी का जीवन परिचय(Bibliography of ghananand in Hindi)

 

                                ( 1746-1817 )

घनानंद रीतिकाल की रीतिमुक्त स्वच्छन्द काव्यधारा के सुप्रसिद्ध कवि है। आचार्य शुक्ल के मतानुसार इनका जन्म सवंत् 1746 में दिल्ली में हुआ तथा संवत् 1817 में वृंदावन में इनका देहावसन हुआ। 

जीवनी :-  घनानन्द के सम्बन्ध में यह जनश्रुति रही है कि उनका जन्म दिल्ली के एक कायस्थ परिवार में हुआ था। ये बचपन से ही कविता और संगीत के प्रेमी थे। इनके सम्बन्ध में यह भी मान्यता प्रचलित है कि वे निम्बार्क सम्प्रदाय में दीक्षित थे। उनके द्वारा लिखे गए ग्रंथ ‘परमहंस वंशावली’ के उपलब्ध होने से यह धारणा और अधिक पुष्ट हो गई है। इस ग्रन्थ में उन्होंने अपनी शिक्षा-दीक्षा सहित अपनी गुरु-परम्परा का भी उल्लेख किया है। इस उल्लेखित गुरु-परम्परा में घनानन्द 37 वें गुरु श्री नारायण देव के शिष्य थे। घनानन्द सर्वथा अपने ऐसे महान् गुरु की कृपाकिरण को अपने ऊपर चाहते थे, उनके वरदहस्त की छाया अपने सिर पर सदैव रखना चाहते थे। उन्हीं की भक्ति भावना से भरकर ही इन्होंने “परमहंस- वंशावली की रचना की। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने लिखा है- “प्रेम साधना का अत्याधिक पथ पार कर वे बड़े-बड़े साधकों-सिद्धों को पीछे छोड़ सुजानों की कोटि में पहुँच गए थे, अतः सम्प्रदाय में उनका सखी भाव का नामकरण हो गया था।” घनानन्द जी का साम्प्रदायिक अथवा सखी नाम ‘बहुगुनी’ था।

घनानंद की प्रमुख रचनाएं

काशी नागरी प्रचारिणी महासभा ने 2000 सम्वत् तक की खोज के आधार पर निम्नलिखित कृतियों को उनका माना है- 

1.घन आनन्द कवित्त

2.आनन्द घन के कवित्त 

3.स्फुट कवित्त 

4.आनन्द घन जू के कवित्त 

5.सुजान हित

6.सुजानहित प्रबन्ध 

7.कृपाकन्द निबन्ध 

8.वियोग बेला 

9.इश्क लता 

10.जमुना-जस 

11.आनन्द घन जी की पदावली 

12.प्रीती पावस 

13.सुजान विनोद 

14.कविता संग्रह 

15.रस केलि बल्ली 

16.वृन्दावन सत।

घनानन्द और सुजान

घनानन्द के काव्य में ‘सुजान’ का ही वर्णन मिलता है- पर यह सुजान कौन थी, इसका विवेचन भी आवश्यक हो जाता है । घनानन्द मुहम्मदशाह रंगीले के दरबार में ख़ास-कलम (प्राइवेट सेक्रेटरी) थे । इस पर भी - फ़ारसी में माहिर थे- एक तो कवि और दूसरे सरस गायक। प्रतिभासंपन्न होने के कारण बादशाह का इन पर विशष अनुग्रह था। मुहम्मदशाह रंगीले के दरबार की एक नृत्य-गायन विद्या में निपुण सुजान नामक वेश्या से इनको प्रेम हो गया। इधर सुजान की इन पर अनुरक्ति और दूसरी ओर बादशाह के ख़ास-कलम-इन दोनों बातों से घनानन्द की उन्नति से सभी दरबारी मन ही में ईर्ष्या करते थे। अंततः उन्होंने एक ऐसा षड्यंत्र रचा, जिसमें घनानन्द पूरी तरह से लुट गए। दरबारी लोगों ने मुहम्मदशाह रंगीले से कहा कि घनानन्द बहुत अच्छा गाते हैं। उनकी बात मानकर बादशाह ने एक दिन इन्हें गाने के लिए कहा, पर ये इतने स्वाभिमानी और मनमौजी व्यक्ति थे कि गाना गाने से इन्होंने इनकार कर दिया । दरबारी लोगों को इस बात का पता था कि बादशाह के कहने से ये कभी गाना नहीं गाएँगे और हुआ भी वही। दरबारी लोग इसी घड़ी की तो प्रतीक्षा कर रहे थे। उनहोंने बादशाह से कहा कि यदि सुजान को बुलाया जाए और वह घनानन्द से अनुरोध करे तो ये अवश्य गाना गाएँगे और यह हुआ भी। बादशाह की आज्ञा से सुजान वेश्या दरबार में बुलाई गई और उसके कहने पर घनानन्द ने गाना सुनाया - सुजान की ओर मुँह करके और बादशाह की और पीठ करके, परंतु इतनी तन्मयता से गाना सुनाया कि बादशाह और सभी दरबारी मंत्र-मुग्ध हो गए। परंतु बादशाह जितने ही आनंद-विभोर गाना सुनते समय हुए थे, उतने ही कुपित गाना समाप्त होने के बाद हुए । यह उनकी बेअदबी थी कि सुजान का कहा उनसे बढ़कर हो गया । फलतः क्रोधित होकर उन्होंने तत्काल घनानन्द को दरबार व राज्य छोड़ने का आदेश दिया। दरबारियों की चाहत पूर्ण हो चुकी थी। घनानन्द ने चलते समय सुजान से साथ चलने का आग्रह किया, परंतु उसने अपने जातीय गुण की रक्षा की और घनानन्द के साथ जाना अस्वीकार कर दिया। जान और जहान दोनों ही लुटाकर घनानन्द ने वृंदावन की ओर मुख किया। जीवन से इन्हें पूर्ण विरक्ति हो चुकी थी । वृंदावन में उन्होंने निम्बार्क संप्रदाय में दीक्षा ली।

रीतिमुक्त काव्यधारा में घनानंद का स्थान

हिन्दी की सम्पूर्ण स्वच्छंद प्रेम काव्यधारा का अनुशीलन करने पर ज्ञात होता है कि इस धारा के प्रमुख कवियो में से रसखान, आलम, घनानंद, ठाकुर और बोधा के नाम उल्लेखनीय है। ये सभी कवि प्रेम काव्य के प्रमुखप्रणेता है और इन्होने स्वच्छंदता के साथ प्रेमानुभूति का बडा ही मर्मस्पर्शी वर्णन किया है, परन्तु इनमें से घनानंद सर्वश्रेष्ठ कवि है, क्योंकि घनानंद के काव्य में रसखान की सी प्रेम की अनिर्वचनीयता भी हैं, परन्तु इन सबसे बढ़कर घनानंद में कुछ ऐसे असाधारण काव्य सौष्ठव के दर्शन होते हैं, जो न रसखान में है, न आलम में हैं, न ठाकुर में है और न बोध मेही है। घनानंद ने ’सुजान’ केा आलम्बन बनाकर अपनी इस लौकिक प्रेयसी के रूप-सौन्दर्य का इतना मार्मिक एवं मनोरंजक वर्णन किया है कि देखते ही बनता है। सुजान की तिरछी चितवन, धुमते कटाक्ष, रसिली हॅसी, मृदु-मुस्कान, अरूण होठ कान्तिमंडित दंतावलि, सचिवकण, केशराशि, वक्रिम भौंहें, विशाल नैत्र, गर्वीली मुदा, उन्तम यौवन आदि परमुग्ध घनानंद ने उसकी रूप निकाई के अनेक संश्लिष्ट ाप्त चित्र अंकित करते हुए जहाॅ अपनी प्रेम-विभोरता का परिचय दिया है, वहाॅ मुहम्मद शाह रंगीले दरबार की इस नर्तकी के प्रति अपना ऐसा प्रणय-निवेदन किया है, जो हिन्दी काव्यकी स्थायी सम्पत्ति बन गया है। 

घनानंद की श्रेष्ठता का सबसे बडा करण यह है कि घनानंद के हृदय में सुजान के प्रति उत्कृष्ट प्रेम एवं असीम व्यामोह भरा हुआ था, उनके मन में सुजान की अक्षय रूप राशि समाई हुई थी। इसीलिए घनानंद का काव्य प्रेम की गूढता से भरा हुआ था, उनके मन मं सुजान की अक्षय रूप राशि समाई थी। इसीलिए घनानंद का काव्य प्रेम की गूढता से भरा हुआ है, अतृप्ति की अनंतता से भरा हुआ है, अन्तद्र्वद्व की अलौकिकता से भरा हुआ है, वेदना की अक्षयता से भरा हुआ हैं और तीव्रानुभूति की अखंडता से भरा हुआ है, क्योंकि घनानंद का सा उक्ति वैचित्रय और कोई कवि दिखा नहीं सका है, उनकी सी लाक्षाणिक मूर्तिमत्ता किसी की भी रचना में दृष्टिगोचर नहीं होती और उनका सा प्रयोग वैचित्रय कहीं ढँढने पर भी नहीं मिलता है। निःसंदेह वे पे्रमके जितने धनी थे, उतने ही भाषा के भी धनी थे और उतने ही अभिव्यंजना के भी धनी थे।

इसी कारण हिन्दी काव्य की रीतिमुक्त स्वछंद प्रेमधारा में घनानंद का प्रथम प्रश्नपत्र शीर्षस्थ स्थान है।