कवि केशव दास जी का जीवन परिचय || keshavdas Bibliography in Hindi

हिंदी साहित्य के महान कवि केशवदास जी के जीवन परिचय और साहित्यिक परिचय के बारे में बतायेंगे और उनकी रचनाओं और भाषा शैली का ज्ञान प्राप्त करवायेंगे।

हेलो दोस्तों आज हम इस आर्टिकल में आप लोगों को हिंदी साहित्य के महान कवि केशवदास जी के जीवन परिचय और साहित्यिक परिचय के बारे में बतायेंगे और उनकी रचनाओं और भाषा शैली का ज्ञान प्राप्त करवायेंगे।🙏🙏

कवि केशवदास जी का जन्म 1555 ई  में भारत के बुदेलखंड राज्य ओरछा मध्य प्रदेश में हुआ था।            कवि केशवदास जी रीतिकाल के प्रमुख कवि और युक्त प्रवर्तक थे वे आचार्यत्व के साथ-साथ ही कवित्व के दृष्टिसे भी जानजात हैं।

कवि केशव दास जी का जीवन परिचय।

नाम  :             केशवदास
जन्म :              1555 ई
जाति:               ब्राह्मण
जन्म स्थान :       बुन्खदेलखण्ड 
पिता         :        काशीनाथ मिश्रा
मृत्यु          :        1617 ई।

जीवन परिचय.

हिन्दी काव्य-जगत् में रीतिवादी परम्परा के संस्थापक, प्रचारक महाकवि केशवदास का जन्म मध्य भारत के ओरछा (बुन्देलखण्ड) राज्य में संवत् 1612 वि० (सन् 1555 ई०) में हुआ था। ये ब्राह्मण कृष्णदत्त के पोते तथा काशीनाथ के पुत्र थे। ‘विज्ञान गीता’ में वंश के मूल पुरुष का नाम वेदव्यास उल्लिखित है। ये भारद्वाज गोत्रीय मार्दनी शाखा के यजुर्वेदी मित्र उपाधि धारी ब्राह्मण थे। तत्कालीन जिन विशिष्ट जनों से इनका घनिष्ठ परिचय था उनके नाम हैं अकबर, बीरबल, टोडरमल और उदयपुर के राणा अमरसिंह। तुलसीदास जी से इनका साक्षात्कार महाराज इन्द्रजीत के साथ काशी-यात्रा के समय हुआ था।

ओरछाधिपति महाराज इन्द्रजीत सिंह इनके प्रधान आश्रयदाता थे, जिन्होंने 21 गाँव इन्हें भेंट में दिये थे। वीरसिंह देव का आश्रय भी इन्हें प्राप्त था। उच्चकोटि के रसिक होने पर भी ये पूरे आस्तिक थे। व्यवहारकुशल, वाग्विदग्ध, विनोदी, नीति-निपुण, निर्भीक एवं स्पष्टवादी केशव की प्रतिभा सर्वतोमुखी थी। साहित्य और संगीत, धर्मशास्त्र व राजनीति, ज्योतिष और वैद्यक सभी विषयों का इन्होंने गम्भीर अध्ययन किया था। ये संस्कृत के विद्वान् तथा अलंकारशास्त्री थे और इसी कारण हिन्दी काव्यक्षेत्र में अवतीर्ण होने पर स्वभावतः इन्होंने शास्वानुमोदित प्रथा पर ही साहित्य का प्रचार करना उचित समझा। हिन्दी साहित्य में ये प्रथम महाकवि हुए हैं जिन्होंने संस्कृत के आचर्यो की परम्परा का हिन्दी में सूत्रपात किया था।

संवत् 1674 वि० (सन् 1617 ई०) के लगभग इनका स्वर्गवास हुआ था।

केशव दास जी कैसे कवि थे।

केशव दास जी अलंकारवादी कवि थे। अलंकारो में दब कर उनकी कविता बोझिल हो गई है । अतः उनकी कविता में रस परिपाक सुन्दर नहीं हो सका है। अपने रसिक प्रिया ग्रंथ में केशव ने यघपि नौ का वर्णन किया है किन्तु उन्का मूल प्रतिपाद सिंगर है।

रचनाएं 
रसिकप्रिया (1591)
रामचन्द्रिका (1601)
कविप्रिया (1601)
रतनबावनी (1607 ई. के लगभग)
वीरसिंहदेवचरित (1607)
विज्ञानगीता (1610)
जहाँगीर जसचन्द्रिका (1612)
नखशिख और छन्दमाला।

भाषा:
ब्रजभाषा को ही अपने काव्य भाषा के रूप में अपनाया।

काव्यगत विशेषताएं-

केशवदास अलंकार संप्रदायवादी आचार्य कवि थे। आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी ने इन्हें कठिन काव्य के प्रेत कहा है। चहल-पहल, नगरशोभा, साजसज्जा आदि के वर्णन में इनका मन अधिक रमा है। संवादों की योजना में, नाटकीय तत्वों के संनिवेश के कारण, इन्हें विशेष सफलता मिली है। प्रबंधों की अपेक्षा मुक्तकों में इनकी सरलता अधिक स्थलों पर व्यक्त हुई है।
रसिकप्रिया केशवदास की प्रौढ़ रचना है जो काव्यशास्त्र संबंधी ग्रंथ हैं। इसमें रस, वृत्ति और काव्यदोषों के लक्षण उदाहरण दिए गए हैं। कविप्रिया काव्यशिक्षा संबंधी ग्रंथ है जो इंद्रजीत सिंह की रक्षिता और केशवदास की शिष्या प्रवीणराय के लिये प्रस्तुत किया गया था। रामचंद्रिका उनका सर्वाधिक प्रसिद्ध महा काव्य है जिसकी रचना में प्रसन्नराघव, हनुमन्नाटक, कादंबरी
आदि कई ग्रंथो से सामग्री ग्रहण की गई हैं। केशव दरबारी कवि थे। अन्य दरबारी कवियों की भांति उन्होंने भी अपने आश्रयदाता राजाओं का यशोगान किया है। वीर सिंह, देव चरित और जहां- गीर जसचंद्रिका उनकी ऐसी ही रचनाएं हैं। रतनबावनी में मधुक - रशाह के पुत्र रतनसेन, वीरसिंह चरित में इंद्रजीतसिंह के अनुज वीरसिंह तथा जहाँगीर जसचंद्रिका का यशोगान किया गया है।
केशव का दूसरा रूप आचार्य का है। कविप्रिया और रसिकप्रिया में इन्होंने संस्कृत के लक्षण, ग्रंथों का अनुवाद किया और उदाहर -ण स्वरूप अपनी कविताओं की रचना की।
राम चंद्रिका का विषय राम-भक्ति है किंतु केशव कवि पहले थे भक्त बाद में। अतः उनमें भक्ति-भावना की अपेक्षा काव्य- चमत्कार के प्रदर्शन की भावना अधिक है।
विज्ञानगीता में केशव ने वैराग्य से संबंधित भावनाओं को व्यक्त किया है।

राजदरबारों की नाज-सज्ज * के बीच रहने के कारण केशव की प्रवृत्ति प्रकृति में नहीं रही। उनका प्रकृति-चित्रण दोष-पूर्ण है। उसमें परंपरा का निर्वाद अधिक है, मौलिकता और नवीनता कम।

दरबारी कवि होने के कारण केशव में राजदरबारों की वाक्पटुता विद्यमान थी। अतः संवादों की योजना में उन्हें असाधारण सफल -ता मिली। उनके संवाद अंयन्त आकर्षक हैं। उनमें राजदरबारों जैसी हाज़िर-जवाबी और शिष्टता है। उनके द्वारा चरित्रों का उद्घाटन सुंदर ढंग से हुआ है। जनक-विश्वामित्र संवाद, लव- कुश संवाद, सीता-हनुमान संवाद इसी प्रकार के संवाद हैं।
आचार्य केशवदास उच्चकोटि के विद्वान थे। अतः उनके काव्य में कल्पना और मस्तिष्क का योग अधिक है। उनका ध्यान जितना पांडित्य-प्रदर्शन की ओर था उतना भाव-प्रदर्शन की ओर नहीं। पांडित्य-प्रदर्शन की इसी प्रवृत्ति के कारण कुछ आलोचकों ने केशव को हृदय-हीन कवि कहा है, किंतु यह आरोप पूर्णतः सत्य नहीं, क्योंकि पांडित्य-प्रदर्शन के साथ-साथ केशव के काव्य में ऐसे अनेकानेक स्थल हैं जहां उनकी भावुकता और सहृदयतापूर्ण साकार हो उठी है।